बागेश्वर: जहां कभी जीवन का शोर था, वहां अब खामोशी रहने लगी है—पहाड़ों से पलायन सिर्फ गांव नहीं, बचपन भी खाली कर देता है।
यह कहानी है बागेश्वर जिले का चौनी गांव की, जो कभी 25 परिवारों की हंसी-खुशी से भरपूर आबादी से जीता-जागता था, आज पूरी तरह खाली और खामोश हो चुका है। वर्ष 2025 में यहां के अंतिम रहवासी परिवार के भी गांव छोड़ने के बाद चौनी अब सिर्फ एक नाम बनकर रह गया है—एक ऐसा नाम, जिसके साथ जुड़ी हर याद आज अकेलेपन में खो चुकी है। जिला मुख्यालय से सिर्फ 23 किलोमीटर दूर बसे इस छोटे से गांव में अब इतना गहरा सन्नाटा है कि चलते हुए कदमों की आवाज भी अनजान सी लगती है। कभी बाखली में उठते चूल्हों का धुआं, बच्चों की खिलखिलाहट और खेतों में हल की गूंज… आज सब कुछ सिर्फ बीते दिनों की स्मृतियों में कैद है।

चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव 2015 तक किसी तरह 15 परिवारों की उम्मीद से बसा रहा, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार… कुछ भी नहीं बदला। नतीजा यह हुआ कि लोग एक-एक कर गांव छोड़ते गए।और 2025 में अंतिम बुजुर्ग महिला ने भी मजबूरी में घर पर ताला लगा दिया—और चौनी गांव हमेशा के लिए वीरान हो गया, करीब 550 नाली उपजाऊ जमीन आज भी किसी किसान की प्रतीक्षा कर रही है, लेकिन खेतों में अब सिर्फ हवा बहती है। पुराने नक्काशीदार मकान हों या नए लिंटर वाले घर—हर दरवाजे पर जंग लगे ताले ही कहानी बयान करते हैं।

ग्रामीणों की पीड़ा और सरकारी वादे
गांव के वरिष्ठ नागरिक और सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य वंशीधर जोशी आज भी हर बार चौनी का नाम आते ही भावुक हो उठते हैं। वे बताते हैं—मैं इसी गांव में बड़ा हुआ, यहीं से क्षेत्र का पहला स्नातक बना। लेकिन सुविधाओं के अभाव ने हमें भी गांव छोड़ने को मजबूर कर दिया। यह दर्द आज भी खत्म नहीं हुआ।”
ग्रामीण गणेश चंद्र कहते हैं कि सालों तक कोई सुविधा न मिलने के कारण लोग दिल्ली, लखनऊ जैसे शहरों में बसते चले गए।

“हम भी पिछले साल तक गांव में थे, पर मजबूरी में निकलना पड़ा।”
ललिता प्रसाद जोशी बताते हैं—अगर सरकार ने कीवी, माल्टा, अदरक, हल्दी जैसी उच्च मूल्य की खेती, मत्स्य पालन और स्थानीय रोजगार को बढ़ावा दिया होता, तो चौनी आज यूं नहीं उजड़ता।
बागेश्वर के सीडीओ आरसी तिवारी बताते हैं कि सरकार रिवर्स पलायन पर काम कर रही है और चौनी गांव के खाली होने के कारणों की जांच के लिए बैठक बुलाई जाएगी।हम गांव को दोबारा बसाने की कोशिश करेंगे,” वे आश्वासन देते हैं।
देवताओं की उपस्थिति और लौटती चहल-पहल
मान्यता है कि गांव भले इंसानों से खाली हो गया हो, लेकिन देवता आज भी चौनी में विराजमान हैं। हर साल गर्मियों में गांव छोड़ चुके परिवार अपने पैतृक घरों में पूजा-अर्चना के लिए लौटते हैं। कुछ दिनों के लिए गांव में फिर से जीवन लौट आता है—झाड़ियां कटती हैं, रास्ते खुलते हैं और पुराने चूल्हों से धुआं उठता है।
लेकिन पूजा खत्म होते ही गांव फिर उसी गहरी खामोशी में डूब जाता है। और घरों पर लटके ताले बारिश और धूप में और अधिक जंग खाते रहते हैं।
चौनी आज सिर्फ एक गांव नहीं—
यह पहाड़ के हर उस गांव की चेतावनी है, जिसमें सुविधाएं नहीं पहुंचीं। अगर हालात न बदले, तो चौनी जैसे वीरान गांवों की संख्या और बढ़ती जाएगी।










