साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का परिणाम है दिल्ली हिंसा
– साम्प्रदायिक हिंसा अपने आप जन्म नहीं लेती बल्कि ये सुनियोजित हुआ करती
– हिन्दुओं ने मुस्लिमों को उपद्रवियों से बचाया और मुस्लिमों ने हिन्दुओं को
सलीम रज़ा
विगत दिनों देश की राष्ट्रीय राजधानी में जैसा तांडव हुआ उससे दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरा देश आहत है। जिस तरह से दिल्ली सुलग रही थी उसे देखकर लग रहा था कि, इस आग को बुझाने का कम और लगाने का प्रयास राजनीतिक दलों द्वारा किया जा रहा था। जब देश की राजधानी का ये हाल है तो फिर और राज्यों की क्या गिनती? सही मायनों में ये एक काला अध्याय है। जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ ऐसे हादसे होते हैं जो कभी भी नहीं भुलाये जा सकते उाहरणतयाः भागलपुर दंगा, सिक्ख दंगा, अयोध्या कांड, गोधरा कांड, मुजफ्फर नगर कांड और फिर दिल्ली हादसा ये वो हादसे है जिनके बल पर सियासत भी खूब परवान चढ़ी।
सवाल ये उठता है कि, क्या दंगे अपने आप होते हैं या कराये जाते हैं? सच में ये बेहद पेचीदा सवाल तो है ही साथ ही इस पर बेबाक टिप्पणी प्राप्त होना उतना ही मुश्किल है जितना अंधेरे में अपनी परछांई तलाशना। क्या आप इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि, साम्प्रदायिक हिंसा अपने आप जन्म नहीं लेती बल्कि ये सुनियोजित हुआ करती है। इसके कई उदाहरण हैं, कई बार ऐसा हुआ है कि, दो सम्प्रदायों के दरम्यान हिंसक झडपें होती रहती हैं। लेकिन स्थिति नियंत्रण में हो जाती है। लेकिन नियंत्रण से बाहर और बेकाबू होती हिंसा बहुत सारे सवाल खडें कर देती है।
दिल्ली के हालात कितने भी नाजुक क्यों न हों लेकिन सियासत अपने आला मुकाम पर आसीन है। अदालत की उस सख्त टिप्पणी को ध्यान में रखना होगा जिसमें उच्च न्यायलय और उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि, दिल्ली में दोबारा 1984 के दंगों जैसे हालात नहीं होने देंगे इसका अभिप्राय ये है कि, ये हिंसा पूर्व नियोजित है। दरअसल जब इन्दिरा गांधी की उन्हीं के अंगरक्षकों द्वारा हत्या करी गई थी, उसके बाद पूरे देश में एंटी सिक्ख मुवमेंट हुआ और खुले आम सिक्खों के साथ हिंसक वारदातें हुई। देश की कांग्रेस सरकार के साथ पुलिस भी मुकदर्शक बनी रही। जैसा कि अब दिल्ली में हुआ। जिस पर सरकार के साथ पुलिसिंग और मीडिया पर भी सवाल खड़े हो गये हैं।
उसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस मुरलीरधरन ने भाजपा के नेताओं और दिल्ली पुलिस को लताड़ लगाते हुये एफआईआर दर्ज करने को कहा लेकिन नतीजा ये हुआ कि, उनका स्थानान्तरण पंजाब हाईकोर्ट के लिए कर दिया गया था। ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश में हुआ था जब संगीत सोम पर ऐसे ही कुछ आरोप मढ़े गये थे, लेकिन कार्यवाही सिफर थी। तब ऐसा लगने लगा कि, कानून अपना काम सही तरीके से नहीं कर पा रहा है। कारण चाहें जो भी हो लेकिन ये बात तो तय है कि, जब कानून ऐसे मामलों में अपनी भूमिका सही न निभा पाये तो समझ लेना चाहिए कि, एक और किसी हिंसा की पटकथा लिखी जानी शेष है। उसी का नतीजा रहा दिल्ली हिंसा, लेकिन अंदेशा ये है कि, अभी ऐसे कई मामले सामने आ सकते हैं। क्योंकि बिहार और बंगाल चुनाव के नतीजे अगर सत्तासीन सरकार के पक्ष में गये तो हो सकता है हालात सामान्य हों लेकिन अगर परिणाम प्रतिकूल आये तो हालात नासाज ही रहने के आसार हैं।
क्योंकि उसके बाद सियासत के सबसे बड़े कुंभ उत्तर प्रदेश का चुनावी अखाड़ा सजाया जायेगा जो बेहद ही संवेदनशील प्रदेश के रूप में देखा जाता है। फिलहाल बात दिल्ली हिंसा पर चल रही थी तो क्यों न उसी पर फोकस किया जाये। देश की राजधानी दिल्ली की सड़कें कई दिनों तक हिंसा की आग में जलीं सडकों पर उस हिंसा के निशान देखे जा सकते थे। भले ही हिंसा के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहराकर एक पक्षीय बहस चल रही हो लेकिन इस हिंसा में जिन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को खोया है उनके दर्द को हम कैसे और किस नजरिये से देखते हैं ये हमारी मानवीय संवेदना पर निर्भर करता है। दिल्ली हिंसा को अगर नरसंहार कहा जाये तो शायद गलत न होगा। ये एक तरह से पूर्व नियोजित हो सकता है क्योंकि इस बात को तो सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि, हिंसा अगर पूर्व नियोजित न हो तो उसकी समय अवधि कम होती है, लेकिन जब पूर्व नियोजित हो तो ये हिंसा न होकर नरसंहार ही कहा जा सकता है।
दिल्ली की हिंसा भाजपा के नेताओं के द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष एन्टी मुस्लिम उकसाने वाले संवाद की पृष्ठभूमि ही कही जा सकती है। इस बात में कोई भी संदेह नहीं है कि, अगर इस दंगे की निष्पक्ष जांच की जाती है तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा। लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है। जबकि हालात ये हैं कि, देश के मुखिया से लेकर सत्तारूढ़ दल के ज्यादातर लोग एक ही भाषा का प्रयोग कर रहे हों उनके वर्जन ही इस बात की पुष्टि कर जाते हैं कि, दिल्ली हिंसा पूर्व नियोजित और एन्टी मुस्लिम थी। दूसरी सबसे बड़ी बात ये है कि, जब अदालत को मिड-नाइट बैठकर पुलिस को ये दिशा-निर्देश देना पड़े कि हिंसा में जख्मी लोगों की मदद के लिए एम्बुलेंस को आने-जाने की इजाजत दे और इस बात को सुनिश्चित करे कि, आना-जाना बाधित न हो।
पहली बात तो ये है कि, अदालत का निर्देश ध्वस्त पुलिसिंग और सरकार से उसकी संलिप्तता की तरफ इशारा भी करता है, और ये सोचने को मजबूर भी कर देता है कि, दिल्ली और देश कितने नाजुक दौर से गुजर रहा है। क्या अभी भी कोई शक है कि, दिल्ली पुलिस का ये नजरिया आटोमेटिकली बाइव्रेट नहीं था। इसका दूसरा उदाहरण है जब भाजपा का एक नेता भड़काऊ स्पीच देता है और पुलिस का एक जिम्मेदार अधिकारी अदालत में कहे कि, उसने वायरल विडियों नहीं देखा है और फिर अदालत को वो विडियों क्लिप उस अधिकारी को देखने के लिए बाध्य किया जाये तो इसे आप क्या कहेंगे? क्या ये बात साफ नहीं हो जाती कि, पुलिस अपने दायित्व और कानून-व्यवस्था बनाये रखने में कितनी दिलचस्पी रख रही थी।
दूसरी सबसे बड़ी शर्मनाक बात तो ये है कि, जब देश का महाअधिवक्ता पुलिस की इस कारगुजारी पर पशेमान न होकर अदालत से ही कहे कि, वह पुलिस के ऊपर कोई प्रतिकूल टिप्पणी न करे जिससे पुलिस का मोरल टूटे जबकि पुलिस एक धर्म के दंगाइयों के सामने मूकदर्शक बनी रहे तो फिर मोरल के मायने ही संदिग्ध हो जाते हैं। देश की आजादी के बाद से लेकर अब तक हिंसा का दंश सिक्ख और मुस्लिमों ने देखा है। ये कोई नया नहीं कहा जा सकता। बहरहाल सारा निचोड़ ये है कि, ये कहा जा रहा है कि, कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के बाद दिल्ली में दंगा हुआ। लेकिन ये बात इत्तेफाक नहीं रखती है कि, दिल्ली दंगे की शुरूवाती कड़ी कपिल मिश्रा ही थे।
जरा पीछे जाकर देखे तो स्थिति साफ हो जायेगी क्या ये नहीं लगता कि, सत्तसीन सरकार के नेता दिल्ली हार के बाद ही हिंसा की पटकथा लिख चुके थे। बार-बार अपने भाषणों के जरिए जनता को मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा को भड़काने और ऐसा करने के लिए अभिव्यक्ति का अधिकार की संज्ञा देने का प्रमाणपत्र बनाया जा रहा हो? फिर एक कपिल मिश्रा ही संदेह के घेरे में क्यों? खुद देश के प्रधानमंत्री जो सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास की बात कहकर जनता को भ्रमित कर रहे हैं, उन्होंने मुस्लिमों के प्रोटेस्ट को एक प्रयोग ठहराया था। वहीं देश के गृह मंत्री ये कहते देखे गये कि, धरने पर बैठी महिलाओं को तेज का करंट लगे और केन्द्रिय मंत्री भरी सभा में गद्दारों को गोली मारने जैसे नारे लगवाये और एक नेता मुस्लिमों को सबक सिखाने की सलाह दे डाले तो इसे आप क्या कहेंगे? उसके बाद उसी कड़ी का एक हिस्सा कपिल मिश्रा रहे जो भड़काऊ भाषण देकर दिल्ली को हिंसा की आग में झोंक देते हैं।
ये वो पूर्व नियोजित पटकथा थी, जिसकी आखिरी कड़ी कपिल मिश्राा बने। हिंसा के बाद कई ऐसे मामले भी सामने आये जहां हिन्दुओं ने मुस्लिमों को उपद्रवियों से बचाया और मुस्लिमों ने हिन्दुओं को बचाया। अगर ये हिन्दु-मुस्लिम था तो फिर ऐसी तस्वीर सामने क्यों आई? वहीं शाहीन बाग में धरने पर बैठी महिलाऐं न तो हिन्दु विरोधी थीं न तो देश के खिलाफ थीं, वो तो सरकार के खिलाफ धरना दे रहीं थीं। फिर हिन्दु-मुस्लिम की बात कहां से निकलकर आई। जबकि नुकसान भी मुस्लिम इलाकों में ही हुआ। जो पूर्व नियोजित और साम्प्रदायिक सदभाव का गला घोटने जैसा कहा जा सकता है। जहां पुलिस दंगाइयों के सामने मूक दर्शक बनी हुई थी। ऐसे में ये एक तरफी हिंसा नहीं तो और क्या थी? लेकिन इसे हिन्दु-मुस्लिम दंगों का रूप देकर अपने आप को बचाने की सरकार की नाकाम कोशिश जरूर है।