कत्यूर काल से इतिहास को समेटे हुए है यह पर्यटन स्थल
रिपोर्ट: सूरज लडवाल
चम्पावत – जिला मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर पाटी विकासखण्ड अन्तर्गत देवीधुरा कस्बे में स्थित विश्वप्रसिद्ध माँ बाराही धाम कत्यूर काल से इतिहास को समेटे हुए है । बताते चलें कि कत्यूर काल से ही विश्व प्रसिद्ध बग्वाल ( पाषाण युद्ध ) खेली जाती आ रही है । कत्यूर काल से वर्तमान तक प्रतिवर्ष चार खाम सात थोक के लोगों द्वारा पूर्ण हर्षोल्लास के साथ इसे मनाया जाता आ रहा है । बताते चलें कि शान्ति औऱ इतिहास को खुद में समेटे हुए देवीधुरा स्थित यह धाम सम्पूर्ण विश्व का एकमात्र बाराही धाम है । एक ओर जहाँ श्रावणी मास की पूर्णिमा के दिन ही सम्पूर्ण राष्ट्र भाई – बहन के अटूट संबंध रक्षाबंधन को मनाता है वहीं दूसरी ओर उसी दिन वराह पर्वत के लोग कत्यूर काल से बग्वाल (पाषाण युद्ध) खेलते आ रहे थे । लेकिन बीते 5 वर्षों से हाईकोर्ट नैनीताल के आदेशनुसार पत्थर युद्ध का रूपांतरण फल फूलों की वर्षा द्वारा सम्पन्न किया जाता है । साक्ष्यों एवं किवदंतियों को गौर से देखा जाय तो माँ के इस पावन प्रांगण में बग्वाल संभवतः पाषाणकाल से ही प्रचलन में है । लोक मान्यताओं व मंदिर परिसर के आस पास पौराणिक साक्ष्य स्पष्ठ करते हैं कि बग्वाल के प्रचलन से पहले खोलिखाड़ दुबाचौड़ में श्रावणी मास की पूर्णिमा के दिन किनावर विधान से तंत्र विद्या साधने हेतु नरबलि की प्रथा प्रचलन में थी । जिसे चार खाम के लोगों द्वारा प्रतिवर्ष बारी – बारी से सम्पन्न कराया जाता था । लोकमान्यताओं और इस विधान को सम्पन्न करने वाले लोगों के वंशजों व क्षेत्रीय इतिहास के पुख्ता जानकारों के अनुसार एक बार नर बलि की बारी चम्याल खाम की थी किन्तु उस खाम में जिस राठ ( वंश ) की बारी थी , उस वंश में एक वृद्धा और उसका एक पौत्र ही जीवित थे । जब मंदिर व्यवस्था और उस समय के सम्मानित लोगों ने सभा कर वृद्धा के पौत्र को नरबलि के लिए नामित किया तो वृद्धा अपने वंश को खत्म होता देख काफी व्यथित हुई और माँ की आराधना करने लगी । ऐसा कहा जाता है कि माँ ने उस वृद्धा को बालरूप में दर्शन देकर ताम्र दंडिका दी औऱ स्वयं अन्तर्ध्यान हो गई । जब वृद्धा ताम्र दंडिका को लेकर मंदिर व्यवस्था और पीठाचार्य के पास गई तो उन्हें आश्चर्य हुआ , और ताम्र दंडिका को गौर से देखने पर दण्डिका में लिखी लिपि का सार कुछ इस प्रकार बताया जाता है , जिसमें लिखा था आज के बाद इस धरा पर कोई नरबलि नही होगी मेरे गणों को प्रसन्न करने हेतु कोई अन्य उपाय अपने विवेक से सिद्ध करो । बताया जाता है कि चारखाम सात थोक और मंदिर व्यवस्था प्रमुख पीठाचार्य सभी प्रमुखों ने अपने विवेक से बग्वाल खेलना सुनिश्चित किया साथ – साथ शर्त और नियम भी तय किये । जिसमें कहा गया कि एक व्यक्ति के बराबर खून यदि निकल आये तो बग्वाल रोक दी जाएगी । बगवाल रुकवाने की जिम्मेदारी मां के ऊपर छोड़कर सभी पूर्ण आस्था के साथ इस परम्परा को पाषाणकाल से निरंतर मनाते आ रहे हैं । वर्तमान में भी मान्यता के अनुरूप सभी चारखाम साथ थोक के पड़तीदारो द्वारा इसे अनेक बाधाओं के बाद भी पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है । वर्तमान के परिपेक्ष्य में इसे फ़िलहाल कुछ परिवर्तित करके मनाया जा रहा है । जहां पत्थरों के स्थान पर फल फूलों को मंदिर प्रांगण खोलिखाड़ – दुबाचौड़ में रख दिया जाता है और बग्वाली वीरों को फलों से हर्षोल्लास से बग्वाल खेलने को कहा जाता है । लेकिन इसके बावजूद बग्वाली वीर फलों को छोड़ पत्थर युद्ध पसंद करते हैं । हाईकोर्ट की रोक और क्षेत्रीय प्रशासन की इतनी रोकटोक के बावजूद बग्वाल समाप्ति के बाद मैदान में एक मनुष्य के बराबर रक्त देखने को मिलता है । देवीधुरा की बग्वाल चम्पावत जिले की ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखंड की पहचान व सम्मान के रूप में जानी जाती है जो पाषाणकाल से चली आ रही है और कालांतर तक निर्वाध रूप से चलेगी । अब तक के इतिहास में बग्वाल को रोकने की दो बार कोशिस की गई लेकिन बग्वाल नहीं रुक पाई । पहली बार अंग्रेजों द्वारा बग्वाल को रोकने का प्रयास किया था लेकिन वो असफल रहे थे । बग्वाली वीर सनातन जागरण सेना के संस्थापन दीपक बिष्ट ने बग्वाल को अपनी कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार बयाँ किया है –
” यह धरती कत्यूरों के तप ज्ञान की है , यह मिट्टी चारखाम के शीशदान की है ,
अंग्रेजी हुकूमतों के आगे झुका नही कभी , यह धरती बग्वाली वीरों के स्वाभिमान की है !
इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए दूसरी बार वर्ष 2020 में कोरोना के कहर के दौरान बग्वाल को रोकने की कोशिस की गई । इस बार कोरोना काल में जहाँ विश्व के सभी मेले व बड़े कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए थे । वहीं दूसरी ओर प्रशासन की तीन महीने पहले से बग्वाल को रोकने की तैयारी असफल रही । तमाम प्रशासन के अधिकारियों व पुख़्ता पुलिस बल की मौजूदगी के बाद भी बग्वाल नहीं रुक पायी । जिससे एक बार फिर लोगों की आस्था व विश्वास की दृढ़ता सामने आई । वाराही धाम ऐतिहासिक होने के साथ – साथ समूचे राज्य के श्रद्धालुओं का आस्था का केन्द्र भी बना हुआ है । क्षेत्र के तमाम समाजसेवी इस धार्मिक स्थल की पवित्रता व गरिमा बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं । जो उनकी माँ पर आस्था का जीता जागता सबूत है ।